Language is a medium. My first attempt at a poignant Hindi poem.
कुछ हवा का रुख उल्टा था
कुछ हमारे कदम थे डगमगाए
कुछ मंजिल से ना था नाता सही
कुछ मन था बहक जाता कहीं
राहो में चलते बस चलने के लिए
मंजिल की तरफ बढ़ते थे बस बढ़ने के लिए
आज मंजिल ने मुह मोड़ा है
तो मझधार में छोड़ा है
मुड़े पीछे या आगे चले
असमंजस ने घेरा है
जाने ये नयी बात मुझे कैसे रास आएगी
जब जानी पहचानी राहे ही नयी मंजिल पर ले जायेंगी ।।
जब जानी पहचानी राहे ही नयी मंजिल पर ले जायेंगी ।।
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